सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सकारात्मक भाव से ही परिभाषित किया जा सकता है, भारत वर्ष में निवास करने वाले सभी लोग उसके हिस्सेदार हैं- डॉ.राकेश सिन्हा, पूर्व राज्य सभा सांसद

ध्रुव कुमार सिंह, मुजफ्फरपुर, बिहार, १८ फ़रवरी
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सकारात्मक भाव से ही परिभाषित किया जा सकता है, भारत वर्ष में निवास करने वाले सभी लोग उसके हिस्सेदार हैं. भारत के धर्म और पश्चिम के धर्म में सबसे बड़ा अंतर वैश्विक चेतना और ब्रम्हाडिय चेतना का है. गाँधी ने ब्रह्माडिय चेतना से जुड़ कर काम किये अतः वह कालजयी हो गए. उक्त बातें बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग द्वारा “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विकास का इतिहास” विषय पर आयोजित दो-दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार के समापन समारोह में वतौर मुख्य अतिथि दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक और पूर्व राज्य सभा सांसद डॉ.राकेश सिन्हा ने कही. उन्होंने कहा कि भारत के राष्ट्रवाद में असहमति और आलोचना की पूरी छूट है. यहां एक ही घर में कोई नास्तिक है तो दूसरा ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाला, इसीलिए कवि रवींन्द्र नाथ टैगोर ने भारत को एक बार फिर से पुनर्जन्म लेने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि दुनियां का भविष्य सुरक्षित रह सके. कार्यक्रम के विशिंष्ट अतिथि डॉ.सुरेश पाण्डेय ने भारतीय राष्ट्रवाद को प्राचीनतम बताते हुए कहा कि अपने मूल से जुड़े रहकर ही हम राष्ट्र की सेवा कर सकते हैँ. कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए बीआरएबीयू के कुलपति डॉ.दिनेश चंद्र राय ने शोधार्थियों को विषय वस्तु के गहराई में जाकर शोध करने का आह्वान किया. विभागाध्यक्ष डॉ.नीलम कुमारी ने अपने स्वागत सम्बोधन में राष्ट्रवाद पर हुई चर्चा को ऐतिहासिक बतलाया. धन्यवाद ज्ञापन समाज विज्ञान की संकायाध्यक्ष डॉ.संगीता रानी ने किया. दो-दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार को सफल बनाने में डॉ.अमर बहादुर शुक्ला सहित अन्य विभागीय सहयोगियों का योगदान रहा. कार्यक्रम में डॉ.जीतेन्द्र नारायण, डॉ.अनिल कुमार ओझा, डॉ.संजय कुमार, डॉ.शरदेंदु शेखर, डॉ.ममता रानी, बर्दवान विश्वविद्यालय की डॉ.प्रियंका दत्ता चौधरी, डॉ.देवेंद्र प्रसाद तिवारी, डॉ.पंकज कुमार सिंह सहित सैकड़ो शोधार्थियों और छात्र-छात्राओं ने भाग लिया और विभिन्न सत्रों में अपने विचार रखे